Friday, 22 March 2013

लम्हे

लम्हे

कुछ लम्हे साथ गुजारे हैं
कुछ रातें साथ गुजारीं हैं।
कुछ दिन भी साथ में काटे हैं
कुछ खुशियां हमने बांटी हैं।
कुछ गम भी साथ में काटे हैं
कुछ लम्हे साथ गुजारे हैं।

किस मोड़ मिले मालूम नहीं
किस ओर चले मालूम नहीं।
बस मिलना था सो मिल ही गए
मुंह मोड़ चले मालूम नहीं।

एक गांव कभी था अपना सा
एक बाट कभी थी अपनी भी
एक मोड़ कभी था अपना भी
एक साथ कभी था अपना सा।

वो पेड़ की टहनी अपनी थी
जिस पे पींगें मारीं थीं
झूले थे हम जी भर के
गूंजी अपनी किलकारी थी।

दुनियाँ की आपाधापी में
हम जाने चले कहां आए
वो गांव गया, वो टहनी भी
वो सारे रस्ते भूल आए,

वो डरना और सहमना भी
वो गिरना और सम्भलना भी
वो हाथ बढाकर छू पाना
वो बन्द आंखों से दीखना भी,

वो वादे साथ निभाने के
जो कसमें हमने खाईं थीं
वो बात गई, वो जात गई
वो शाम गई, वो सहर गई,

कुछ लम्हे चुरा के रखे हैं
हमने वक्त के सीने से
उन लम्हों में शायद फ़िर से कभी
मतलब मिल जाएं जीने के,

उन कच्ची पक्की यादों के,
उन कच्चे पक्के लम्हों के,
उन राहों के, उन मोड़ों के,
तिनके सा सही, सहारे हैं।
कुछ लम्हे साथ गुजारे हैं,
कुछ खुशियां हमने बांटी हैं,
कुछ गम भी साथ में काटे हैं,
कुछ लम्हे साथ गुजारे हैं ॥

- सुधांशु ॥



Sent from my iPhone

No comments:

Post a Comment