Wednesday 10 April 2013

अलाव

अलाव

एक अलाव की जलती सुलगती आंच सी
चलती जाती है जिन्दगी,
थोड़ी तपिश देती हुई
थोड़ी सिहरन है बदन में फ़िर भी॥

तपिश देने के लिए अलाव सोचता नहीं
कि क्या डाला है आदमी ने उसमें ।
इंधन, कचरा, खुशी या आंसू
बस थोड़ी आंच और थोड़ी हवा ।

थोड़ा धुआं, थोड़ी आग और थोड़ी लपटें
थोड़ी गरमी, एक लिपटा कम्बल
थोड़ी वो बचपन की बातें,
थोड़े जवानी के गीत
थोड़ी तपिश, थोड़ी सिहरन
अलाव सुलगता रहता है कच्ची पक्की आंच में।
और थोड़ी थोड़ी कटती जाती है जिन्दगी॥

सर्द हवा के झोंके आते लपटें लहरा उठतीं हैं
सर्दी बढ सी जाती है और
अलाव में आग भड़क भी जाती है
पर सर्दी बढती जाती है।

कम्बल लिपटे ऐसे तन पे जैसे साजन की बांहें
गर्मी देतीं हैं तन को पर थोड़ी चुभतीं जातीं हैं

जाड़े की वो रात ही ऐसी
सर्दी, सिहरन, बांहें, कम्बल
तपिश, दबिश और थोड़े आंसू
धुआं, अगन और थोड़ी गर्मी ।

एक अलाव के पास की बातें
कुछ एक ऐसे खास की बातें
कोई गिन ले दिल की धड़कन
लहरा दे लपटों को कोई और मिटा दे तन की सिहरन ॥

सब देखता जाता है अलाव और सुलगता जाता है,
थोड़ी गर्मी, थोड़े आंसू और देता थोड़ा अपनापन,
जीवन भी चलता जाता है ॥

- सुधांशु ॥

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